Wednesday, December 14, 2011

कफ़न पे सेहरा


ख़्वाब सुनहरा है मेरा,
ज़ख्म भी गहरा है मेरा !

कैद है बस तेरी यादें,
और दिल पे पहरा है मेरा !

जनाज़े में यूँ तेरा आना,
जैसे कफ़न पे सेहरा है मेरा !

अब और तुझे लुभाऊँ कैसे,
बदसूरत ये चेहरा है मेरा !

क्या करूँगा मैं चल कर,
वक़्त भी ठहरा है मेरा !

हाल-ए-दिल सुनाता मगर,
दिलबर भी बहरा है मेरा !

Saturday, December 3, 2011

उलझनें


उसे उलझनें देकर,
मैं बस निहारता रहा, एक तक.....
क्यूँकी वो और भी मासूम
और हसीन नज़र आ रही थी,
जब वो सुलझा रही थी,
उन उलझनों को.......
जी किया एक बार कि
ख़त्म कर दूँ तमाम उलझनों को......
मगर हिम्मत ना कर पाया,
मैं दख़ल देने की....
कौन जाने फ़िर कब
ऐसा नज़ारा नसीब होता......
मगर फ़िर जब उसने इशारे से,
मदद की गुहार की.........
जाने कब मैंने ख़ुद ही ख़त्म कर दिया
सारी उलझनों और मुश्किलों को......
और जब वो धीरे से मुस्कुराई,
उसके रुख़ का सुकूँ, कोई नूर बन गया था......
मैं बस इबादत करता रहा.......
"साबिर", मैं जीना सीख रहा हूँ.......
शायद उलझनें जीना सहल कर देती हैं..........