Sunday, October 2, 2011

कहकशाँ


क़ामयाबी की कहकशाँ में रहने दो,
ग़र मुझे इस गुमाँ में रहने दो !

परिंदा हूँ, ऊँची उडाँ है मेरी,
तुम मुझे आसमाँ में रहने दो !

तमाम मंज़िलें हो जाएँगी हासिल,
अपने सायों को कारवाँ में रहने दो !

ऊब चुका है दिल गुलों की ख़ुशबू से,
इन काँटों को गुलिस्ताँ में रहने दो !

"साबिर" तुम्हारी वफ़ा का अंदाज़ न भाया,
मेरी रक़ीब को आश्याँ में रहने दो !

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