इज़हार-ए-इश्क में शर्मिन्दगी कैसी,
"साबिर" उसके बिना ज़िन्दगी कैसी ?
दिल में तमन्ना है उसके सजदे की,
अब किसी और की बंदगी कैसी ?
उसका मिलना सहल(1) है ख्वाबों में,
फिर मुलाक़ात की तश्नगी(2) कैसी ?
बिना जाने उसे अपना बना बैठे,
ये अजब सी दीवानगी कैसी ?
इनकार को मैं उसके, इकरार में बदल दूं,
मकबूल(3) ज़िन्दगी की नुमाइंदगी(4) कैसी ?
समझा नहीं कभी औरों की मुहब्बत को,
"साबिर", दिल की लगी, दिल्लगी(5) कैसी ?
1. सहल = आसान 2. तश्नगी = प्यास
3. मकबूल = सर्वप्रिय, हर दिल अज़ीज़
4. नुमाइंदगी = प्रतिनिधित्व 5. दिल्लगी = मज़ाक
शानदार!
ReplyDeleteBahut hi shandaar yaar...khaskaar pehla aur akhiri sher...bahut hi jandaar...
ReplyDeleteExcellent work Sabir Bhai.
ReplyDeleteAap sabhi ka bahut bahut shukriya !!!!
ReplyDeletethanks a lot !!!
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