Sunday, December 5, 2010

जलवा


जल रहा हूँ मैं, सुलग रहा हूँ मैं,
आईने में अजनबी सा लग रहा हूँ मैं !

ख़याल तेरा आया तो ख़्वाब से की तौबा,
क्यूँ बेसबब यूँ रात भर से जग रहा हूँ मैं !

साया है ये तेरा, या फिर है तेरी आह्ट,
बेज़ा किसी तकल्लुफ से ठग रहा हूँ मैं !

चाँद ग़ज़लें न लिखी जो तेरी आरज़ू में,
'मीर', 'ग़ालिब', 'दाग' से क्यूँ अलग रहा हूँ में !

जलवा है ये "साबिर", अपनी ही आस्तीं में,
हूँ साँप बनके बैठा, क्या लग रहा हूँ मैं !!!