Saturday, November 21, 2009

आस


उससे मिलने के कोई आस भी नहीं,
"साबिर" ज़िन्दगी का अहसास भी नहीं !

सज़ा भुगत रहा हूँ अपने गुनाहों की भी,
उसके बिना तो मैं, जिंदा लाश भी नहीं !

यूँ न हारो सबकुछ, दांव पर लगाकर,
ज़िन्दगी का खेल है, ताश भी नहीं !

खो चुका कहीं, मेरे दिलोदिमाग में वो,
और कर रहा हूँ उसको तलाश भी नहीं !

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