Saturday, December 3, 2011
उलझनें
उसे उलझनें देकर,
मैं बस निहारता रहा, एक तक.....
क्यूँकी वो और भी मासूम
और हसीन नज़र आ रही थी,
जब वो सुलझा रही थी,
उन उलझनों को.......
जी किया एक बार कि
ख़त्म कर दूँ तमाम उलझनों को......
मगर हिम्मत ना कर पाया,
मैं दख़ल देने की....
कौन जाने फ़िर कब
ऐसा नज़ारा नसीब होता......
मगर फ़िर जब उसने इशारे से,
मदद की गुहार की.........
जाने कब मैंने ख़ुद ही ख़त्म कर दिया
सारी उलझनों और मुश्किलों को......
और जब वो धीरे से मुस्कुराई,
उसके रुख़ का सुकूँ, कोई नूर बन गया था......
मैं बस इबादत करता रहा.......
"साबिर", मैं जीना सीख रहा हूँ.......
शायद उलझनें जीना सहल कर देती हैं..........
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wow.. sweet n touchy
ReplyDeletethx a lot Ankita ji !!!
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